Hareli Tihar 2025: हरेली तिहार गुरुवार को मनाया जाएगा। इसी के साथ छत्तीसगढ़ के लोक पर्वों की शुरुआत हो जाएगी। हरेली मुख्य रूप से प्रकृति के शृंगार का पर्व है। चारों ओर हरियाली के साथ जीवन नजर आता है। किसान इस दिन कृषि औजारों के साथ गाय-बैलों की पूजा कर प्रकृति का आभार मानेंगे। खेतों को भोग के रूप में गुरहा चीला अर्पित करने की परंपरा भी है।

कई गांवों में गेड़ी दौड़ प्रतियोगिताएं भी आयोजित

हरेली पर्व सावन माह की अमावस्या को मनाई जाएगी। इस वक्त तक प्रकृति अपना सबसे हरा स्वरूप धारण करती है। कृषक समुदाय के लिए यह त्योहार विशेष महत्व रखता है। हरेली के दिन किसान अपने कृषि यंत्रों, हल, औजारों, गाय-बैलों की पूजा करते हैं। उन्हें स्नान करवाकर लोंदी (पकवान) खिलाई जाती है। मान्यता है कि इससे पशु और उपकरण वर्ष भर स्वस्थ और उपयोगी रहते हैं। त्योहार के अवसर पर घर-द्वार पर नीम की डालियां लगाई जाती हैं। कई लोग गाड़ियों पर भी लगाते हैं।

नीम को स्वास्थ्यवर्धक, रोग नाशक और नकारात्मक शक्तियों से बचाने वाला माना गया है। ग्रामीण इलाकों में इस दिन बैगाओं द्वारा गांव की रक्षा के लिए साधना करने की मान्यता भी है। गेड़ी दौड़ हरेली की विशेष परंपरा है। बच्चे लकड़ी के लंबे डंडों पर चढ़कर दौड़ लगाते हैं। यह परंपरा वर्षा ऋतु में कीचड़ से बचाव के लिए शुरू हुई थी, जो अब बच्चों के लिए आकर्षण बन गई है। कई गांवों में गेड़ी दौड़ प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जाती हैं।

मरम्मत की मांग, कलेक्ट्रेट पहुंचे

छत्तीसगढ़ के कलचुरी वंश के ताम्रपत्रों में कृषक सभाओं, वर्षारंभ महोत्सव और हल-युगल की पूजा का भी उल्लेख मिलता है। एक अभिलेख में लिखा है… कर्षकै हल युगलादीनां स्नाप्य पूजनं कृत्वा। अर्थात कृषकों ने बैलों और हल को स्नान करवाकर विधि-पूर्वक पूजन किया। हरेली पर्व छत्तीसगढ़ की संस्कृति का जीवंत उदाहरण है।

यह त्योहार केवल हरियाली या कृषि पूजन का प्रतीक नहीं, बल्कि स्थानीय लोकजीवन, आस्था, परंपरा और पर्यावरणीय चेतना का भी प्रतीक है। छत्तीसगढ़ ने इस पारंपरिक पर्व को एक नए सांस्कृतिक स्वरूप में ढाल कर इसे राष्ट्रीय पटल पर भी पहचान दिलाई है। जहां शहरी क्षेत्रों में यह पर्व सीमित दायरे में मनाया जाता है, वहीं ग्रामीण इलाकों में हरेली आज भी पूरे उत्साह और सामुदायिक एकजुटता के साथ जीवित है।

हरेली भारतीय संस्कृति में गहराई से जुड़ी है…

दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध मोतीलाल नेहरू कॉलेज के इतिहास विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर और बलौदाबाजार निवासी डॉ. धुरंधर ने बताया कि हरेली का आरंभ प्राचीन काल से जुड़ा है। वैदिक युग में अथर्ववेद के कृषि सूक्त और विष्णु पुराण में हरेली जैसे वर्षारंभ अनुष्ठानों का वर्णन मिलता है। मौर्य काल में कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कृषि यंत्रों के पूजन और रखरखाव का उल्लेख मिलता है।

इस परंपरा ने आगे चलकर हरेली पर्व का रूप लिया। गुप्त काल के नाटकों और साहित्य में भी वर्षा ऋतु, कृषक उत्सव और हल पूजन का उल्लेख है। बाणभट्ट की रचनाओं में भूमि को हरित वस्त्र से ढंके होने की उपमा दी गई है… सर्वं भूमितलं हरितवसनमिव बभौ। इससे साफ होता है कि ऋतु पर्वों की सामुदायिक परंपरा हरेली भारतीय संस्कृति में गहराई से जुड़ी है।